मातृत्व का पर्व और संतान के कल्याण का प्रतीक
भारत और नेपाल के मिथिला क्षेत्र में जितिया व्रत का विशेष महत्व है। यह व्रत माताओं द्वारा अपने बच्चों की लंबी उम्र, समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए मनाया जाता है। जितिया व्रत में माताएं कठोर उपवास रखती हैं और यह व्रत विशेषकर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, और नेपाल के थारू समुदाय में मनाया जाता है। विक्रम संवत के अश्विन माह में कृष्ण पक्ष के सप्तमी से नवमी तक यह तीन दिवसीय पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्योहार सदियों से मैथिल और भोजपुरी संस्कृति में गहराई से जुड़ा हुआ है और यह न सिर्फ धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का भी एक अहम हिस्सा है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम जितिया व्रत की महिमा, नियम, इसके पीछे की कथा, और इस पर्व से जुड़े सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
जितिया व्रत
जितिया व्रत को ‘जिवित्पुत्रिका व्रत’ के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत का उद्देश्य बच्चों की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है। इस व्रत को खासकर माताएं करती हैं, और इसमें वे अपने बच्चों के जीवन की सुरक्षा और समृद्धि की कामना करती हैं। जितिया व्रत का पालन कठोरता से किया जाता है, जिसमें माताएं निर्जला उपवास करती हैं, यानी बिना पानी के उपवास करती हैं। यह व्रत तीन दिनों तक चलता है और इसे तीन चरणों में बांटा जाता है: ‘नहाय-खाय’, ‘खुर जितिया’ (निर्जला उपवास), और ‘पारन’ (व्रत का समापन)।
जितिया व्रत के दिन और महत्व
व्रत का आरंभ अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि से होता है और नवमी तिथि तक चलता है। यह व्रत खासतौर से बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के मिथिलांचल क्षेत्र में मनाया जाता है, जहां माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए व्रत करती हैं। इस व्रत का नाम जितिया इसलिए पड़ा क्योंकि यह व्रत पौराणिक कथा के अनुसार राजा जीमूतवाहन की कथा से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने अपने परोपकार और वीरता से बच्चों की रक्षा की थी।
जितिया व्रत की कथा
गरुड़ और लोमड़ी की कथा
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, जितिया व्रत की शुरुआत गरुड़ और लोमड़ी की एक पौराणिक कथा से हुई। कहा जाता है कि एक बार गरुड़ और एक मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के किनारे हिमालय के जंगलों में रहते थे। एक दिन, उन्होंने कुछ स्त्रियों को व्रत और पूजा करते हुए देखा और उसे करने की इच्छा जताई। दोनों ने व्रत का पालन करने का निश्चय किया। गरुड़ ने पूरे निष्ठा और समर्पण से व्रत का पालन किया, जबकि लोमड़ी भूख से व्याकुल हो गई और छुपकर भोजन कर लिया। परिणामस्वरूप, लोमड़ी के सभी बच्चे जन्म के कुछ ही दिनों बाद मर गए, जबकि गरुड़ के बच्चे लंबी उम्र के लिए आशीर्वादित हुए। इस कथा से यह संदेश मिलता है कि व्रत का पालन सच्ची निष्ठा और समर्पण के साथ करना चाहिए।
जीमूतवाहन की कथा
जितिया व्रत की सबसे प्रसिद्ध कथा जीमूतवाहन की है। इस कथा के अनुसार, जीमूतवाहन एक गंधर्व राजा थे, जो अपने राज्य के कामकाज से संतुष्ट नहीं थे और जंगल में जाकर तपस्या करने लगे। एक दिन जंगल में घूमते हुए उन्होंने एक वृद्ध महिला को विलाप करते हुए देखा। उन्होंने उससे रोने का कारण पूछा, तो वृद्धा ने बताया कि वह नागवंश से है और उसके पुत्र को पक्षीराज गरुड़ का भोजन बनने का समय आ गया है। यह जानकर जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वासन दिया कि वह उसके पुत्र की रक्षा करेगा। जीमूतवाहन ने स्वयं को गरुड़ के लिए बलिदान करने का निश्चय किया और पत्थरों के बिस्तर पर लेट गए। जब गरुड़ आया और जीमूतवाहन को पकड़कर ले जाने लगा, तो उसे आश्चर्य हुआ कि वह कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है। गरुड़ ने जीमूतवाहन से उसकी पहचान पूछी, तो उन्होंने पूरी घटना बताई। जीमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रभावित होकर गरुड़ ने नागवंश से कोई और बलिदान न लेने का वादा किया। इस तरह, जीमूतवाहन के परोपकार से नागों की जान बच गई और तभी से इस व्रत को बच्चों की लंबी उम्र और कल्याण के लिए मनाया जाने लगा।
जितिया व्रत के नियम
जितिया व्रत के पालन के लिए कुछ विशेष नियम होते हैं, जिनका पालन व्रत करने वाली माताओं को करना होता है। यह नियम कठिन होते हैं, लेकिन इनका पालन निष्ठा और समर्पण के साथ किया जाता है।
नहाय-खाय: व्रत के पहले दिन को ‘नहाय-खाय’ कहा जाता है। इस दिन माताएं सूर्योदय से पहले स्नान करती हैं और सात्विक भोजन करती हैं। भोजन में वे खासतौर पर चावल, नोनी का साग और मडुआ की रोटी खाती हैं।
खुर जितिया: व्रत के दूसरे दिन को ‘खुर जितिया’ कहते हैं। इस दिन माताएं निर्जला उपवास करती हैं, यानी वे पूरे दिन बिना पानी पिए उपवास रखती हैं। यह दिन सबसे महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह दिन व्रत का मूल दिन होता है।
पारन: तीसरे दिन व्रत का समापन होता है, जिसे ‘पारन’ कहते हैं। इस दिन माताएं सूर्योदय के बाद व्रत खोलती हैं और भोजन करती हैं। पारन के दिन विशेष रूप से नोनी का साग, मडुआ की रोटी और तोरी की सब्जी बनाई जाती है।
जितिया व्रत का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व जितिया व्रत केवल धार्मिक महत्व का पर्व नहीं है, बल्कि इसका सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी है। यह पर्व माताओं के समर्पण और उनके बच्चों के प्रति उनके प्रेम का प्रतीक है। व्रत के दौरान माताएं अपने बच्चों के स्वास्थ्य, समृद्धि और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती हैं, और यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके अलावा, जितिया व्रत के माध्यम से परिवार और समाज में एकता और भाईचारे का संदेश भी फैलता है।