माँ चंद्रघंटा (Maa Chandraghanta)

ॐ चन्द्रघंटायै च विद्महे शिवप्रीताय च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्

माँ चन्द्रघंटा

हिंदू धर्म में नवदुर्गा के तीसरे रूप के रूप में पूजी जाने वाली माँ चन्द्रघंटा का नाम उनके अद्वितीय स्वरूप को दर्शाता है। उनके मस्तक पर अर्द्धचंद्रमा की आकृति वाली घंटी होती है, इसलिए उनका नाम चन्द्रघंटा पड़ा। माँ चन्द्रघंटा को उनकी वीरता, शक्ति, साहस, और शांतिपूर्ण स्वभाव के लिए पूजा जाता है। नवदुर्गा की तीसरी देवी के रूप में उन्हें नवरात्रि के तीसरे दिन पूजा जाता है, और यह दिन भक्तों के लिए अत्यधिक महत्व रखता है, क्योंकि माँ चन्द्रघंटा अपने भक्तों के सभी कष्टों, पापों और मानसिक अशांतियों को दूर करती हैं।

माँ चन्द्रघंटा का नामकरण और स्वरूप

चन्द्रघंटा नाम की उत्पत्ति ‘चंद्र’ (अर्धचंद्र) और ‘घंटा’ (घंटी) शब्दों से हुई है। उनके मस्तक पर स्थित अर्द्धचंद्रमा घंटी की तरह प्रतीत होता है। यह स्वरूप युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहने वाले एक दिव्य योद्धा का संकेत है। उनके तीसरे नेत्र के खुला रहने का मतलब है कि वह निरंतर सतर्क हैं और बुराई से लड़ने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। माँ चन्द्रघंटा के दस हाथ होते हैं, जिनमें वे विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों को धारण करती हैं, और उनका वाहन भेड़िया है, जो साहस और वीरता का प्रतीक है।

माँ चन्द्रघंटा की पौराणिक कथा
माँ चन्द्रघंटा की पौराणिक कथा भगवान शिव और माँ पार्वती से जुड़ी है। यह कथा महादेवी पार्वती के विवाह और एक भयावह राक्षस, जाटुकासुर, के साथ उनके युद्ध पर आधारित है।

शिव और पार्वती का विवाह
कई वर्षों की तपस्या के बाद देवी पार्वती ने भगवान शिव से विवाह किया। विवाह के पश्चात पार्वती जब शिव के घर कैलाश पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि शिव का निवास गुफा अव्यवस्थित और गंदगी से भरा हुआ था। देवी पार्वती ने अपने वैवाहिक वस्त्रों में ही झाड़ू उठाकर उस गुफा को स्वच्छ किया और धीरे-धीरे वहाँ के नए वातावरण में ढल गईं। इसी बीच एक नए राक्षस, तारकासुर, ने ब्रह्मांड में आतंक मचाना शुरू किया। तारकासुर को वरदान प्राप्त था कि केवल शिव और पार्वती के पुत्र द्वारा ही उसकी मृत्यु संभव थी।

जाटुकासुर का आतंक
तारकासुर ने अपने वरदान का लाभ उठाने के लिए शिव और पार्वती के जीवन में विघ्न डालने की योजना बनाई। उसने जाटुकासुर नामक एक राक्षस को शिव-पार्वती पर हमला करने के लिए भेजा। जाटुकासुर और उसकी सेना ने कैलाश पर आक्रमण किया, जब भगवान शिव गहन तपस्या में लीन थे। देवी पार्वती अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थीं और इस स्थिति से अनजान थीं। राक्षसों ने भयानक विनाश मचाना शुरू कर दिया, जिससे पार्वती भयभीत हो गईं।

शक्ति का जागरण
शिव ने पार्वती को याद दिलाया कि वह स्वयं शक्ति की देवी हैं और इस स्थिति से निपटने के लिए उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह स्मरण करवाने पर पार्वती ने अपने भीतर छिपी दिव्य शक्ति को जागृत किया और राक्षसों का मुकाबला करने का निर्णय लिया। देवी पार्वती ने चंद्रदेव से सहायता मांगी और युद्धभूमि में रोशनी के लिए उन्हें अपने मस्तक पर धारण किया। युद्ध के दौरान, देवी ने अपनी दिव्य घंटी बजाई, जिसकी ध्वनि से सभी दुष्ट राक्षस पराजित और स्तब्ध हो गए। अंततः माँ चन्द्रघंटा ने जाटुकासुर का वध कर दिया।

इस कथा से यह संदेश मिलता है कि माँ चन्द्रघंटा सभी भक्तों को किसी भी प्रकार की बाहरी और आंतरिक बाधाओं से निपटने का साहस और शक्ति प्रदान करती हैं। उनका आह्वान करने से मनुष्य को मानसिक शांति और साहस की प्राप्ति होती है।

माँ चंद्रघंटा

 

माँ चंद्रघंटा का इतिहास

माँ चन्द्रघंटा का स्वरूप और उनकी पूजा सदियों पुरानी परंपरा है, जो वैदिक काल से चली आ रही है। पुराणों और अन्य हिंदू शास्त्रों में माँ चन्द्रघंटा का वर्णन एक शक्तिशाली योद्धा देवी के रूप में किया गया है, जो दुष्टों का विनाश करने और धर्म की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। इतिहास में माँ चन्द्रघंटा की पूजा विभिन्न राजाओं और सेनाओं द्वारा युद्धों से पहले की जाती थी, ताकि उन्हें विजय और साहस प्राप्त हो।

वैदिक काल में माँ चन्द्रघंटा की पूजा
वैदिक काल के समय में देवी चन्द्रघंटा की पूजा विशेष रूप से योद्धाओं और राजाओं के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती थी। उनके स्वरूप को शक्ति और साहस का प्रतीक माना जाता था, जो उन्हें किसी भी युद्ध में विजय दिलाने की क्षमता रखता था। देवी के भक्तों का मानना था कि उनकी पूजा करने से सभी प्रकार की मानसिक और शारीरिक बाधाओं से मुक्ति मिलती है।

महाभारत और रामायण में उल्लेख
महाभारत और रामायण जैसे प्राचीन महाकाव्यों में भी माँ चन्द्रघंटा का उल्लेख मिलता है। महाभारत में, अर्जुन ने देवी दुर्गा की पूजा की थी, जिनके नौ रूपों में चन्द्रघंटा भी शामिल थीं। रामायण में, भगवान राम ने रावण के साथ युद्ध से पहले माँ दुर्गा की आराधना की थी, जिससे उन्हें युद्ध में विजय प्राप्त हुई। इन महाकाव्यों में माँ चन्द्रघंटा को युद्ध की देवी के रूप में दर्शाया गया है, जो अपने भक्तों को निडरता और साहस प्रदान करती हैं।

माँ चन्द्रघंटा का स्वरूप और प्रतीकवाद
माँ चन्द्रघंटा का स्वरूप अद्वितीय और आकर्षक है। उनके दस हाथ होते हैं, जिनमें वे विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण करती हैं। उनके मस्तक पर अर्द्धचंद्र और घंटी का प्रतीक है, जो उनके शक्ति और सौंदर्य के संतुलन को दर्शाता है। उनका स्वर्णिम रंग उनकी दिव्यता और चमक को दर्शाता है, जबकि उनका वाहन भेड़िया साहस और पराक्रम का प्रतीक है।

अस्त्र-शस्त्र और प्रतीक
माँ चन्द्रघंटा के दस हाथों में विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र होते हैं, जिनमें त्रिशूल, गदा, धनुष-बाण, तलवार, कमल, घंटा और कमंडलु शामिल हैं। इन सभी अस्त्र-शस्त्रों का विशेष महत्व है:

1. त्रिशूल– यह शक्ति और विनाश का प्रतीक है।
2. गदा – यह युद्ध में विजय और शक्ति का प्रतीक है।
3. धनुष-बाण – यह कर्म और संतुलन का प्रतीक है।
4. तलवार– यह ज्ञान और विवेक का प्रतीक है।
5. कमल – यह शुद्धता और आध्यात्मिकता का प्रतीक है।
6. घंटा– यह नकारात्मक शक्तियों को पराजित करने का प्रतीक है।
7. कमंडलु – यह तपस्या और त्याग का प्रतीक है।

माँ चन्द्रघंटा की सवारी भेड़िया है, जो साहस, निडरता, और आत्मविश्वास का प्रतीक है। उनके मस्तक पर स्थित अर्द्धचंद्र उनके सौम्य और शांत स्वभाव को दर्शाता है, जबकि उनका तीसरा नेत्र युद्ध और संकट के समय उनकी तत्परता को इंगित करता है।

माँ चन्द्रघंटा की पूजा विधि

नवरात्रि के तीसरे दिन माँ चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है। इस दिन विशेष रूप से साहस, शक्ति,और आत्मविश्वास प्राप्त करने के लिए उनकी आराधना की जाती है।माँ चन्द्रघंटा की पूजा विधि को अत्यंत विधिपूर्वक और श्रद्धा के साथ करते हैं, ताकि देवी की कृपा प्राप्त कर सकें। इस पूजा के अंतर्गत विशेष मंत्रों, फूलों, धूप-दीप, और अन्य पूजन सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। आइए, जानें माँ चन्द्रघंटा की पूजा कैसे की जाती है।

माँ चन्द्रघंटा की पूजा का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में मिलता है। वैदिक काल से लेकर आज तक, माँ चन्द्रघंटा की पूजा विशेष रूप से की जाती रही है। विभिन्न राजाओं और योद्धाओं ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए उनकी आराधना की थी। वेदों में देवी चन्द्रघंटा को शक्ति और साहस की देवी कहा गया है, जो भक्तों की हर प्रकार की बाधाओं को दूर करती हैं।

वैदिक काल में देवी चन्द्रघंटा की पूजा विशेष रूप से युद्ध के समय की जाती थी। जब राजा और उनके सेनापति युद्ध में जाते थे, तो वे देवी चन्द्रघंटा की आराधना करके आशीर्वाद प्राप्त करते थे। पुराणों में भी माँ चन्द्रघंटा की पूजा का महत्व बताया गया है। देवीभागवत पुराण में उनकी महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनकी पूजा से भक्तों को अनंत फल की प्राप्ति होती है।

माँ चन्द्रघंटा शक्ति, साहस, और दिव्यता का अद्वितीय प्रतीक हैं। उनका स्वरूप भक्तों को इस बात की याद दिलाता है कि जीवन में हर चुनौती का सामना निडरता और आत्मविश्वास के साथ करना चाहिए। माँ चन्द्रघंटा की पूजा विशेष रूप से उन भक्तों के लिए है, जो साहस और शक्ति की प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। उनका आशीर्वाद पाने से भक्त मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनते हैं और जीवन की हर चुनौती का सामना करने में सक्षम होते हैं।

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